गुज़रती जाती है ज़िन्दगी एक मंज़िल की चाह में, जैसे समुन्द्र की लहरें साहिल को छु लेने की हसरत को पाल, बार बार आती जाती रहती हैं.
ज़िन्दगी मौजों की तरह एक जोश को सीने में भर उम्मीद के sahare वो सब कुछ करती है जिससे उसे मिल जाये कोई मंज़िल, कोई पड़ाव, जहाँ से शुरू हो आने वाले कल का इन्तिज़ार.
उस कल का, जिसकी जुस्तजू में हम कितनी रात हैं जागे, गिन डाले न जाने कितने आसमान पे चमकते सितारे. सूरज को तो निकलना होगा, ये तो उसकी फितरत है, हम भी अपनी फितरत से न जाने क्या क्या हारे?