आज पूर्वांचल से न जाने कितने लोग पलायन कर चुके हैं, रोज़ी रोटी की तलाश में- ये गमन इक आवश्यकता के कारण था, क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था- अपनी माटी को त्यागना कोई आसान काम नहीं था, पर भूखे पेट कोई कब तक एक आशा के सहारे जी सकता है- उनके सपनो को साकार करने वाले को कहाँ से लाया जाये- जिन से आशा थी, वो अपने सिंहासनों पे चैन की वंशी बजा रहे हैं, क्योंकि उनको विश्वास हो चला है की यहाँ के लोग "परिवर्तन" को लाना नहीं चाहते हैं- क्या ये सत्य है ?