हम में से बहुत से ऐसे होंगे जिस ने 1977 को देखा होगा. ये वो साल है जब यह तय करना था की हम को किस दिशा में जाना होगा. एक तरफ घुप अंधेरा और भय की छाया थी और दूसरी ओर थे आशा के नये पुष्प. बिना खून ख़राबे के एक नयी क्रांति हुई, जो दुर्भाग्या से हमारी उम्मीदों पे पूरी नहीं उतरी.
आज भी माहोल कुछ ऐसा ही है. 2014 में फिर एक अवसर प्राप्त हुआ, कुछ कर दिखाने का. ताश के बावन पत्ते फिर फेनटे गये और एक नये तरीके से खेल फिर शुरू हो गया.
ज़रूरत इस बात की है की ताश के इन पत्तों को पहले बदल दिया जाए...ताकि खेल एक नये ढंग से खेला जाए. तब ही कुछ बदले गा, वरना ये खेल तो यूँ ही चलता रहे गा......हम खेलते रहें गे और वो खिलाते रहेंगे....गुड नाइट..