रमज़ान का महीना, और माँगने वालों का ताँता. वही चेहरे, वही लोग जो हर साल दिखाई देते है, कई तो पुश्त दर पुश्त.
समझ में नहीं आता की ऐसा क्यो है? हमारे समाज में ऐसी क्या कमी है की ये बेचारे माँगने पे मजबूर हैं? क्यों नहीं निकल पाते ग़रीबी के दल-दल से? क्यों हम इन को मछली देते रहे हैं खाने के लिए, मगर नहीं सिखाते मछली मारना?