बचपन में खिचरी का मेला जब आता था तो सारी दुनिया उसी में सिमट सी जाती थी। गोरखनाथ की मंदिर में लगने वाला यह मेला महीनों चलता था। सबके लिए कुछ न कुछ होता था इस मेले में। बच्चों के लिए तो सर्कस से लेकर जादू और तरह तरह के झूले तो बड़ों के लिए नाच गाने और नौटंकी। फिर कुछ और ही मज़ा था लोगों को ले जाकर मेला दिखाने का। इस तरह के मेलों में दो भाइयों के बिछुर जाने पे न जाने कितनी बॉलीवुड की पिक्चरें बन चुकी हैं और बनती रहेंगी। पूरी कहानी में ऐसे कितने अवसर आते हैं जब दोनों भाई आमने सामने आते रहते हैं, मगर एक दुसरे को पहचानते नहीं हैं। फिर 2-3 घंटे के बाद कहानी में मोढ़ आता है और भाई लोग मिल जाते हैं। हमको और देखने वालों को भी तस्सल्ली मिल जाती है की चलो अच्छा हुआ, वरना 2-3 घंटे हम भी परेशान थे की आखिर ये बेचारे मिलेंगे भी तो कैसे?
ज़िन्दगी में भी अक्सर ऐसा होता है की जिसे हम ढूंढ रहे होते है, वो सामने होते हुए भी हम उसे पहचान नहीं पाते है। चाहे वोह लोग हों, या अवसर। न जाने कितने अवसर रोज़ हमारे सामने से गुज़र जाते होंगे, और हम अपने दरवाज़े पे किसी दस्तक के इंतज़ार में बैठे रह जाते हैं। इंतज़ार करने वाले को उतना ही मिलता है जितना दुसरे छोड़ जाते है। चलो अपने ख़्वाबों को सच करने की तलाश में चलते है किसी नयी बस्ती में, किसी नए मेले में, किसी नए झूले पे, किसी नयी भीढ़ में।