चलो बात करते हैं वृद अवस्था और हमारी ज़िम्मेदारी अपने माँ बाप के प्रति। आज इस बात की याद इस लिए आई क्योंकि आज के ही दिन मेरे वालिद साहिब इस दुनिया से रुखसत हो गए थे। क्यूंकि उनके बच्चे दुनिया के दुसरे छोर पे थे, इसलिए उनके आखिरी वक़्त पे कोई उनके साथ न था। आज यह स्थिति बहुतों के साथ है।
रोज़ी रोटी और दुनियादारी को निभाने के चक्कर में हम सब सिकंदर बन समुन्दरों को पार न जाने कहाँ कहाँ चले जाते हैं और घरों में रह जाते हैं बूढ़े माँ बाप। यह आज की सभ्यता का अभिशाप नहीं तो और क्या है? वक़्त के साथ साथ जैसे जैसे बुढापा आता है, हमारे बुजुर्गों की स्थिति वैसी ही हो जाती है, जैसे रोई के गठ्ठर में भरता हुआ पानी। जैसे जैसे रूई में पानी भरता जाता है, वैसे वैसे वोह भारी होती जाती है, और फिर एक बोझ सा बन जाती है।
हम भौतिक सुख की खोज में भूल जाते है अपने कर्तव्य को। क्या वह दिन अच्छे नहीं थे जब गाँव में या मोहल्ले में हर कोई जानता था हमारा नाम।आज महानगरों के कंक्रीट के जंगलों में बसे हम खुद अपने वजूद को खोते चले जा रहे हैं, कुछ खनकते हुए सिक्कों की खातिर।
मेरे भाई , थोडा ठहर जाओ, और रुक के देखो उन फूलों को जो तुम्हारे ही आँगन में खिले है, और बहुत खूबसूरत है। एक दायरे में भागने से थक भी जाओ गे और एहसास भी न होगा की तुम ने फासला कुछ भी तै नहीं किया है, तुम जहाँ थे, बस वहीं हो।