आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान में ऐसी लूट मची की एक आम आदमी दर्द के कराहना भी भूल गया. फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और चुनाव के दिन वोट डालता चला गया- इस उम्मीद पे की शायद उसके भी दिन बदलें गे. वो चाहता तो हथियार भी उठा सकता था पर उसे विश्वास था की क्रांति बिना बंदूक उठाए भी आ सकती है...उसके सब्र का सिला उसे मिलना ही चाहिए-..ज़रूरत इस बात की है की हम धर्म और ज़ात से हट कर देखना शुरू कर दें....क्या यह संभव है?